*जनगणना कॉलम में खुद को किस रूप में दर्शीय सिंधी समाज
*देश के विभाजन के बाद भारत में आकर बस गया था यह समुदाय
एड. रमेश सूर्यवंशी।
जातीय जनगणना के संदर्भ में अब जब यह निश्चित हो गया है कि भारत में आगामी जनगणना जातीय आधार पर ही होनी है। यह आधार भारतीय नागरिक होने के नाते सिन्धी समुदाय के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है कि सिन्धी समुदाय में अन्य भारतीय समुदायों की भाँति ऐतिहासिक रूप से कठोर जातीय प्रावधानों की उपस्थिति नहीं मिलती। यहाँ इस समाज के समक्ष यह यक्ष प्रश्न आ खड़ा हुआ है कि वह जनगणना 'कालम' में खुद को किस रूप में दर्शाये। क्योंकि यह प्रश्न इस समुदाय की आने वाली पीढ़ियो को गहराई से प्रभावित करेगा।
इस प्रश्न के समुचित समाधान के लिये यह आवश्यक है कि सिन्धी समुदाय के पिछले इतिहास में झांका जाये। सिन्धी समुदाय का उद्गम ऐतिहासिक रूप से सिन्धु घाटी सभ्यता से प्रारंभ होता है, और यह समुदाय सिन्ध (वर्तमान पाकिस्तान) का मूल निवासी है। जिसका एक सुदीर्घ एवं सम्पन्न इतिहास है। 1947 के दुर्भाग्यशाली विभाजन के फलस्वरूप सिन्धी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भारत के विभिन्न भागों में आ बसा।
भारत में रहने वाले सिन्धी मुख्यतः हिन्दू ही है तथा कुछ हिस्सा सिक्ख एवं ईसाई सिंधियो का भी है। जबकि पाकिस्तान में मुख्य रूप से मुस्लिम और ईसाई सिन्धी रहते है। यदि भारतीय इतिहास के संदर्भमें देखे तो सिन्धी समुदाय अपनी अद्वितीय सामाजिक संरचना के लिये बहुत अच्छे तरीके से जाना जाता है जो अन्य भारतीय समाजों से जातीय अवधारणा की दृष्टि से भिन्न है। इस समुदाय की मुख्य विशेषता इसके सामाजिक ताने-बाने में लचीलापन और कठोर जातिगत संरचना का नितांत अभाव है जिससे सिन्धी समाज में अधिक समतावादी सामाजिक गतिशीलता होना संभव होती है। यह विशेष पहलू भारत के व्यापक संदर्भ में सिन्धी समाज की विशिष्ट सामाजिक पहचान और सामाजिक प्रथाओं से प्रकट होता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से सिन्धी समुदाय में जाति व्यवस्था का कोई विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नही होता। कुछ विद्वानों का यह मत है कि सिन्धी समुदाय में जाति व्यवस्था का प्रभाव नहीं है बल्कि कुछ विद्वान यह महसूस करते है कि सिन्धी समुदाय में जाति व्यवस्था वर्तमान में भी मौजूद है। लेकिन यह जाति व्यवस्था अन्य भारतीय समाजों की तरह अत्यंत कठोर नही है। यहां यह उल्लेखनीय है कि विभाजन के पश्चात जब सिन्धी समुदाय भारत मे बसा तो इस प्रक्रिया में सिंधियों ने अपनी सामाजिक संरचना में बदलाओं को महसूस किया और उन्होने बदलाव किये भी। इस समुदाय में अन्य भारतीय समाजों की तरह उच्च एवं निम्न जातियों की अवधारणा के चिन्ह एवं साक्ष्य दृष्टिगोचर नही होते।
सिन्धी समुदाय समाज में सामाजिक भेद का कारण अक्सर मूल स्थान अथवा व्यवसाय से जुडे होते है न कि किसी विशिष्ट जाति से। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि समुदाय में सामाजिक भेद मूलतः वर्ग पर अधिक केंद्रित होते है न कि जाति पर। भारत एवं सिन्धी समुदाय के संदर्भ में यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन है कि सिन्धी कोई जाति नहीं है बल्कि यह एक भाषा है जिसे सिन्ध (वर्तमान में पाकिस्तान) में रहने वाले बाशिंदे बोलते है।
विभिन्न स्त्रोतो एवं ऐतिहासिक संदर्भों से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सिन्धी समुदाय में भेद कठोर जातीय आधार पर न होकर वर्ग पर आधारित था। सिन्धी समाज कई वर्ग और उपवर्ग में विभाजित है जिनमें कुछ प्रमुख है लोहाना, खत्री, ब्राहम्ण (शर्मा) इत्यादि।
सिन्धी समाज में वर्गो को लेकर एक अपना इतिहास रहा है जो कि विभिन्न उप वर्गों एवं समुदाय में विभाजित हो गया।
ब्राहम्ण (शर्मा): सिन्धी समुदाय में ब्राहम्णो की उपस्थिति भी पाई जाती है शर्मा, पोकना एवं सरसत / सरसुघ ।
खत्री: खत्री समुदाय सिन्धी समाज का एक महत्वपूर्ण अंश है।
अरोडा: अरोडा समुदाय जो अपने आप में सचदेवा, खट्टर, आहूजा, माखीजा, रहेजा, बाघवा / वाधवानी जैसे उपवर्गों में समेटे हुए है भी सिन्धी समुदाय का महत्वपूर्ण भाग है।
यदि हम ऐतिहासिक रूप से देखे तो मुख्यतः सिन्धी समुदाय विशेषतः लोहाना वर्ग से संबंधित है जो कि व्यापारी, सौदागर एवं सरकारी अधिकारी वर्ग को इंगित करता है। सिन्धी लोहाना स्वयं में कई विभिन्न उपवर्गो में विभाजित है मतलब आमिल, भाईबंद, सिंधीवर्की, साहिती, शिकारपुरी, हटवानियां / हटवारा थट्टाई और भगनारी आदि। देखा जाये तो इन उपवर्गो में भी कई उपवर्ग है। अन्य वर्गों में भाटिया, लाडाई या उतरादी, अरोड़ा और शिकारपुरी, खत्री भी सम्मिलित है। इन सभी वर्गों को सिन्ध में वाण्या (वणिक) कहा जाता है ये हिन्दू धर्म के अनुसार वणिक वर्ण से सम्बंधित है। सिन्धी (हिन्दू) राजपूत अधिकांशतः थार भूक्षेत्र में मिलते है। सिन्धी हिन्दुओ में ऐतिहासिक रूप से न तो जाति आधारित विभाजन के साक्ष्य मिलते है और न ही उंची एवं नीची जाति एवं छूआछूत की कोई अवधारणा दृष्टिगोचर होती है।
अब यहाँ यह भी उल्लेख किया जा सकता है कि सिंधियों की कुलट्रैवी हिंगलाज माता है जो कि सिंधियों के अलावा अन्य क्षत्रियों की कुलदेवी भी है अतः यह भी कहा जा सकता है कि सिंधियों का मूल वर्ग क्षत्रिय भी रहा होगा जो कि ऐतिहासिक रूप से आगे चलकर व्यवसायों के आधार पर अन्य वर्गों में अर्थात आमिल, भाईबंद, हटवारा इत्यादि वर्गों में विभाजित हुआ परन्तु यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सिन्ध के निवासियों में जाति प्रथा का कोई विशेष साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
(लेखक भोपाल के सीनियर एडवोकेट हैं। यह उनके निजी विचार हैं)